प्रसंग - राधा कृष्णाला जाब विचारते कि तू मला का सोडून गेलास, त्यावर कृष्ण तिला बरेच समजावू पाहतो, कर्म, धर्माच्या गोष्टी सांगतो
त्यावर राधाचे उत्तर -
शब्द - अर्थहीन
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हि सार्थकता तू
मला कशी समजावणार ...
कान्हा ...
शब्द शब्द शब्द
माझ्या करता सगळे अर्थहीन असते,
जर ते माझ्या समीप बसून
माझ्या निर्जीव कुंतलात हात गुंफून
तुझ्या कापऱ्या ओठांतून आले नसते ...
शब्द शब्द शब्द
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
मी देखील घरो घरी ऐकले आहेत हे शब्द
अर्जुनास यात काहीही सापडो ...
मला बापडीला यात काही सापडत नाही प्रिया ...
मी फ़क़्त त्यांच्या मार्गात अडखळून
तुझ्या ओठांची कल्पना करत राहते,
ज्यातून तू पहिल्यांदा उच्चारले असशील हे शब्द ...
तुझे ते सावळे मनोहर रूप
किंचित वळलेली शंखाकृती मान
माझ्या दिशेने उठलेल्या चंदन-बाहू
ती आपल्यातच मग्न अशी दृष्टी
अन हळू हळू हलणारे ते ओठ ...
मी कल्पना करते कि
अर्जुनाच्या जागी मी आहे
आणि माझ्या मनात मोह निर्माण झाला आहे
मला माहिती नाही कि हे कोणते युद्ध आहे
मी कोणाच्या बाजूने आहे
नेमका पेच काय आहे
आणि युद्धाचे कारण काय आहे
पण माझ्या मनात मोह निर्माण झाला आहे
कारण तुझ्याकडून समजावून घेणे
मला फार आवडते
आणि सैन्य स्तब्ध उभे आहे
इतिहास स्थगित झाला आहे
आणि तू मला समजावत आहेस ...
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
शब्द शब्द शब्द
माझ्या करता नितांत अर्थहीन आहेत हे -
मी ह्या सगळ्याच्या पलीकडे तुला पाहते आहे
तुझ्या प्रत्येक शब्दाला
चातकासारखी पीत आहे
आणि तुझे असाधारण तेज
माझ्या शरीरातील रोमा रोमास
सचेतन करीत आहे
आणि तुझ्या ह्या जादूभर्या ओठांतून
रातराणीच्या फुलासामान टप-टप शब्द झरत आहेत
एका पाठोपाठ एक, एका पाठोपाठ एक ....
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व ....
आणि माझ्यापर्यंत येता-येता सगळे बदलून जात आहेत
मला ऐकु येते ते फक्त ...
राधे राधे राधे ...
शब्द शब्द शब्द
तुझे शब्द अगणित आहेत कान्हा - अमाप
पण त्यांचा अर्थ एकाच आहे -
मी
मी
फ़क़्त मी
मग आता त्या शब्दांनी
मलाच
इतिहास कसा समजावणार कान्हा ?
- धर्मवीर भारती (स्वैर अनुवाद - विश्वेश)
मूळ कविता -
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कनुप्रिया (इतिहास: शब्द – अर्थहीन)
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझाओगे कनु?
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए
तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द…….
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए
तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द…….
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
- तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें
तुम्हारी अपने में डूबी हुई
अधखुली दृष्टि
धीरे-धीरे हिलते हुए होठ!
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें
तुम्हारी अपने में डूबी हुई
अधखुली दृष्टि
धीरे-धीरे हिलते हुए होठ!
मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो……
अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं-
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अँजुरी बनाकर
बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं-
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अँजुरी बनाकर
बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्, राधन्, राधन्,
रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्, राधन्, राधन्,
शब्द, शब्द, शब्द,
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है -
मैं,
मैं,
केवल मैं!
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है -
मैं,
मैं,
केवल मैं!
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?
मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?
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